~ By Santosh Kumari / एक हीरा ही पर्याप्त है – संतोष कुमारी
In ancient times, there lived in India, a great seer, his name was Ashtavakra. He was the son of Rishi Kahoda and Sujata, the daughter of Rishi Uddalaka. Ashtavakra spoke truth without any artifice. His father was a great scholar and while Ashtavakra was in his mother’s womb, his father recited the Vedas daily and Ashtavakra listened to them from the womb.
One day, a voice spoke from the womb, “Stop all this nonsense. There is no truth in mere words, they are just a heap of ashes. Truth is within oneself.”
Hearing this, his father became angry. First of all he was a father and on the top of all a great scholar of Vedas, scriptures, and a debater. His ego was hurt and in anger he cursed the womb that when born, it would be bent at eight segments. Accordingly the boy when born had eight bent segments, thus he was known as Ashtavakra.
When he was twelve years old, the King Janaka, held a great debating conference. He invited all the scholars of the country to participate. At the gate of the palace, Janaka placed one thousand cows with their horns plated with gold and diamond jewellery hung over their necks. He proclaimed, “Whoever will be victorious will take possession of these cows.”
It was a great debate and Ashtavakra’s father took part in it. By evening, he received a message that his father was losing against a great scholar named Vandin, son of Varuna, God of Ocean. Hearing this, Ashtavakra left for Janaka’s palace. The debate was at the point of ultimate conclusion, his father’s defeat was almost a certainty.
Ashtavakra entered the court; the pundits saw that his body was bent at eight places. His very movement was a matter of laughing. The whole assembly broke into laughter and Ashtavakra also laughed.
Then Janaka asked him, “I can understand why all others laughed but why did you laugh?”
Ashtavakra replied, “I am laughing because truth is being discussed in this meeting of cobblers.”
There was utter silence in the assembly. Janaka asked, “Cobblers! What do you mean by this word?”
Ashtavakra replied, “It is only a simple matter. They only see my skin but they don’t see me. They are cobblers because they only judge by the skin. My body is twisted but not `me.’”
He then asked Janaka, “O King, in the curve of the temple, is the sky ever curved? If the pot is smashed, is the air present in it ever smashed? The sky is unalterable. The one who lives within, look at him, you can’t find anything straight and purer than him.”
Janaka was shocked. He could not say anything because he himself had laughed too. That night he could not sleep.
Next morning, Janaka went to Ashtavakra and requested him, “Please visit my palace and resolve my questions. I could not sleep the whole night. You said rightly that those who recognise only the body and have no deep understanding. They go on debating about the soul, but attraction and repulsion for the body is still there in them. They speak about the deathless but still they are looking at death. My sleep is broken. Please come and resolve my questions.”
Janaka took the twelve-year-old boy Ashtavakra to his palace and seated him on the golden throne and asked him questions.
Ashtakvakra then imparted his famous teachings, which are beyond words, caste, creed and religion — known to us today as Ashtavakra Gita.
I am giving examples of his Gita:
- “You are not elements i.e. earth, water, fire, air, or even ether. To be liberated, know yourself as pure consciousness who is the witness of these (elements). 1.3
- You are neither brahmin nor belong to any other caste, you are not at any stage, nor are you anything that you see with your eyes. You are detached and formless – the witness of everything — so be happy. 1.5
- Righteousness and unrighteousness, pleasure and pain are purely concept of the mind and do not concerns of you. You are neither the doer nor the reaper of the consequences, so you are always free. 1.6
- You are the one witness of everything and are always completely free. The cause of your bondage is that you see the witness as something other than this. 1.7
- Truly when one does not know oneself, one takes pleasure in objects of mistaken perception, just as greed arises for the mistaken silver in one who does not know mother of pearl for what it is. 3.2
- Rare is the man who knows himself as the nondual Lord of the world, and he who knows this is not afraid of anything. 4.6
प्राचीन काल में, भारत में एक महान द्रष्टा हुए, उनका नाम था “अष्टावक्र”। वे ऋषि कहोड़ और ऋषि उद्दालक की बेटी सुजाता के बेटे थे। अष्टावक्र किसी से भी बिना झिझक के सच बोलते थे। उनके पिता एक महान विद्वान थे, जब अष्टावक्र अपनी मां के गर्भ में थे तो उनके पिता रोज वेद का दैनिक पाठ पढ़ा करते थे और अष्टावक्र गर्भ से उन्हें सुना करता था।
एक दिन, गर्भ से एक आवाज़ आती है, “यह सब बकवास बंद करो केवल शब्दों में कोई सच्चाई नहीं है, वे सिर्फ राख का ढेर हैं, सत्य तो हमारे भीतर है”
यह सुनकर, उनके पिता क्रोधित हो गए। सबसे पहले वे एक पिता थे साथ ही साथ वेदों, ग्रंथों के ज्ञाता और वेदों के सभी महान विद्वानों के शीर्ष थे। उनके अहंकार को चोट पहुंची तो उन्होनें क्रोध में गर्भ को शाप दे दिया कि पैदा होने पर, यह आठ खंडों के शरीर वाला होगा। तदानुसार जिस लड़के ने जन्म लिया उसका शरीर आठ खण्डों में बटा हुआ, टेढ़ा मेढ़ा (विकृत) था, इस कारण से उन्हें अष्टावक्र के नाम से जाना जाता था।
जब वह बारह साल का हुआ तब राजा जनक ने विद्वानों की वाद विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया। उन्होंने इस प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए देश के सभी विद्वानों को आमंत्रित किया। महल के द्वार पर, जनक ने एक हज़ार गायों के सींग को सोने से मंडित कर और हीरे जवाहरत की मालाएं उनके गले में लटका दी और घोषणा की, “जो भी विजयी होगा वह इन गायों का मालिक होगा।”
यह एक बड़ी वाद-विवाद की प्रतियोगिता थी जिसमें अष्टावक्र के पिता ने भी भाग लिया। शाम तक उन्हें एक संदेश मिला कि उनके पिता वरुण (महासागर के देवता) के पुत्र वंदिन जो एक महान विद्वान थे से हार रहे हैं। यह सुनकर, अष्टावक्र जनक के महल की और चल दिए। वाद-विवाद अंतिम निष्कर्ष पर थी, उनके पिता की हार लगभग निश्चित थी।
अष्टावक्र ने दरबार में प्रवेश किया, पंडितों ने देखा कि उनका शरीर आठ स्थानों से टेड़ा मेड़ा था। उनके चलने का ढंग हंसाने वाला था। पूरी सभा में मौजूद विद्वान और अन्य लोग उसे देख कर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे, और अष्टावक्र भी हंसने लगे।
तब राजा जनक ने उनसे पूछा, “मैं समझ सकता हूं कि अन्य सभी क्यों हंस रहे हैं, लेकिन आप क्यों हंसें?”
अष्टावक्र ने जवाब दिया “मैं हंस रहा हूँ क्योंकि इस सभा में सत्य पर चर्चा हो रही है पर मुझे तो यहाँ विद्वानों की जगह चर्मकार ही नज़र आ रहे हैं।”
अष्टावक्र ने कहा, “यह एक साधारण सी बात है। वे केवल मेरी त्वचा देखते हैं लेकिन वे मुझे नहीं देखते हैं। वे चर्मकार हैं क्योंकि वे केवल त्वचा को देख कर राय बनाते हैं। मेरा शरीर जरूर मुड़ा हुआ है, लेकिन मैं नहीं।”
विधानसभा में सन्नाटा छा गया। जनक ने पूछा, “चर्मकार! आपका इस शब्द से क्या मतलब है?”
उसने जनक से पूछा, “हे राजन, मंदिर की घुमावदार गुम्बद में, क्या आकाश कभी घुमावदार होता है? अगर मिटटी के बर्तन तोडा जाता है तो क्या उसमें मौजूद वायु भी टूट जाती है? आकाश अपरिवर्तनीय है। जो हमारे भीतर रहता है, उसे देखो, उसके मुकाबले अविकृत और शुद्ध और कोई भी वस्तु नहीं है। “
जनक चौंक गए। वह कुछ भी नहीं कह पा रहे थे क्योंकि वह खुद भी हँसे थे। उस रात वह सो नहीं सके।
अगली सुबह, जनक अष्टावक्र के पास गए और उससे अनुरोध किया, “कृपया मेरे महल पर चलें और मेरे प्रश्नों को हल करें। मैं पूरी रात सो नहीं सका। आप ने ठीक ही कहा था कि जो लोग केवल शरीर को ही पहचानते हैं वे सत्य को पा नहीं सकते। वे आत्मा के बारे में बहस करते हैं, लेकिन शरीर के लिए आकर्षण और प्रतिकर्षण उनमें बना रहता है। वे मौत के बारे में बात करते हैं, लेकिन फिर भी वे जो मर्त्य है उसे ही देख रहे हैं। मेरी तंद्रा (बेहोशी, अज्ञानता) टूट गई है। कृपया आइए और मेरे प्रश्नों को हल कीजिये।”
जनक, बारह वर्षीय लड़के अष्टवक्र को अपने महल में ले गए और सोने के सिंहासन पर बिठा कर, उससे सवाल पूछे।
अष्टावक्र ने तब अपनी प्रसिद्ध शिक्षाओं को प्रदान किया, जो शब्दों, जाति, पंथ और धर्म से परे थी। आज हम उनकी शिक्षा को अष्टावक्र गीता के रूप में जानते हैं।
मैं उनके गीता के कुछ उदाहरणों को दे रही हूं:-
- आप न तत्व हैं और न ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु यहां तक कि आकाश भी नहीं, बल्कि मुक्त होने के लिए, अपने आप को चेतना से निहित जानों जो इन सबका दृष्टा है। 1.3
- आप न तो ब्राह्मण हैं और न ही किसी अन्य जाति से हैं, आप किसी भी अवस्था पर नहीं हैं, न ही आप कुछ और हैं, जो आप अपनी आँखों से देखते हैं। आप अनासक्त और निराकार हैं – सब कुछ का दृष्टा है – इसलिए खुश रहें 1.5
- धार्मिकता (नीतिपरायणता) और अधर्म (अनैतिकता), सुख और दुःख आदि पूरी तरह मन से सम्बंधित हैं और आपकी कोई चिंता नहीं है; क्योंकि आप न तो कर्ता हैं और न ही परिणामों के भोक्ता हैं, इसलिए आप हमेशा मुक्त हैं। 1.6
- आप सभी एक दृष्टा मात्र हैं और हमेशा पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। आपके बंधन का कारण यह है कि आप दृष्टा को इसके अलावा अन्य किसी चीज़ के रूप में देखते हैं। 1.7
- वास्तव में, जब कोई खुद को नहीं जानता है, तो गलत धारणाओं की वस्तुओं में आनंद लेता है, जैसे लालच उस गलत चांदी के लिए उत्पन्न होता है जो मोती का सीप (मोती की माँ) को नहीं जानता कि वह क्या है। 3.2
- वह व्यक्ति दुर्लभ है जो खुद को दुनिया के अद्वैत प्रभु के रूप में जानता है, और जो यह जानता है उसको किसी से भय नहीं है। 4.6